भोपाल। साहित्य, संस्कृति और कलाओं में मनुष्यता के आदर्श मूल्यों का बखान करने वाले गुरूदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की पुण्य तिथि (7 अगस्त) पर एक अद्वितीय ग्रंथ ‘आनन्द धारा’ का प्रकाशन किया जा रहा है। करीब सवा सौ पृष्ठों की यह कृति गुरूदेव की सांस्कृतिक दृष्टि को रेखांकित करते निबंधों का दुर्लभ दस्तावेज़ है। टैगोर विश्व कला एवं संस्कृति केन्द्र, आरएनटीयू के लिए इस किताब का सम्पादन कला समीक्षक विनय उपाध्याय ने किया है। 7 अगस्त से मॉरीशस में आयोजित ‘विश्वरंग’ महोत्सव के दौरान ‘आनन्द धारा’ का लोकार्पण होगा।
इस कृति में प्रमुख रूप से यामिनी राय, शंख घोष, अम्लान दत्त जैसे अग्रणी रचनाकारों के बांग्ला में लिखे निबंधों का उत्पल बैनर्जी ने हिन्दी में अनुवाद किया है। इसके अतिरिक्त उषा गांगुली, अशोक भौमिक, इलाशंकर गुहा, आलोक चटर्जी, सोनाली बोस और विपिन शर्मा ने अपने आलेख टैगोर की चित्रकला, नाटक, रबीन्द्र संगीत तथा ललित कलाओं के विभिन्न पक्षों पर साझा किये हैं। आवरण चित्र शंख अधिकारी का है जबकि आवरण आकल्पन मुदित श्रीवास्तव ने किया है। तकनीकी सहयोग अमीन उद्दीन शेख का रहा।
इस पुस्तक की भूमिका में साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी संतोष चौबे कहते हैं कि ‘विश्वरंग’ जैसे वृहद महोत्सव की परिकल्पना, विस्तार और संयोजन से गुज़रते हुए सदैव ही हमारे मानस में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की सांस्कृतिक विरासत रही है। संसार के सामने वे एक ऐसी विराट विभूति के रूप में उपस्थित हैं जिसका समूचा चिन्तन और सृजन ‘मनुष्यता’ और उसके अपार ‘आनन्द’ के पक्ष में है। ‘आनन्द धारा’ में संकलित आलेख रबीन्द्रनाथ की इसी मनोभूमि की थाह पाने का प्रयोजन है।
‘आनन्द धारा’ के सम्पादक तथा टैगोर कला केन्द्र के निदेशक विनय उपाध्याय के अनुसार गुरूदेव तमाम दुनियावी दुखों के बीच उम्मीद भरी आवाज़ थे। प्रेम, करुणा और प्रकृति की घनी छायाओं से गुज़रते हुए टैगोर का चिन्तन मनुष्यता के आदर्श पर विश्राम लेता है। इस यात्रा में वे साहित्य के साथ संगीत, नृत्य, नाटक, चित्रकला और सृजन की सभी विधाओं को साथ लेकर चले। इस पुस्तक में उनकी दार्शनिक मेधा का दिव्य दर्शन होता है। शिक्षा और कला को लेकर उनके प्रयोगों की जीवन्त पाठशाला को दुनिया ने शान्ति निकेतन के रूप में देखा। वे मानते थे कि हमारा कोई भी सांस्कृतिक चिन्तन प्रकृति और प्रेम के बिना अधूरा है।