डॉ. ममतामयी प्रियदर्शिनी
भारत सरकार 2025-26 तक पेट्रोल में वर्तमान के 13% से 20% एथेनॉल मिश्रण का लक्ष्य लेकर चल रही है। इस नीति के तहत मक्का (कॉर्न) इथेनॉल उत्पादन के लिए मुख्य फसल बन गया है। एथेनॉल डिस्टिलरीज़ की बढ़ती मांग ने मक्के की घरेलू मांग को बढ़ा दिया है, जिससे इसकी कीमतें आसमान छू रही हैं। मक्के की बढ़ती मांग ने पारंपरिक आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित कर दिया है। परिणामस्वरूप, भारत जो कभी मक्के का बड़ा निर्यातक था, अब आयातक बन गया है। 2024 में, मक्के का निर्यात 20-40 लाख मीट्रिक टन से घटकर मात्र 4.5 लाख मीट्रिक टन रह गया, जबकि आयात बढ़कर 10 लाख मीट्रिक टन तक पहुंच गया। इसका असर मक्के पर आधारित विभिन्न उद्योगों पर पड़ा है। मक्का पर 60-70% निर्भर मुर्गी पालन उद्योग इसकी बढ़ती लागत से संघर्ष कर रहा है। पोल्ट्री इंडस्ट्री सरकार से आयात शुल्क हटाने और जीएम (जेनेटिकली मोडिफाइड) मक्का की अनुमति देने की मांग कर रही है। लेकिन यदि यह मांग मान ली गई, तो यह निर्णय पारंपरिक गैर-जीएम मक्का की खेती करने वाले लाखों छोटे किसानों के लिए विनाशकारी हो सकता है।
अब सवाल यह है कि क्या भारत एथेनॉल लक्ष्य को बिना खाद्य सुरक्षा से समझौता किए हासिल कर सकता है? जीएम मक्का का विरोध करने वाले कृषि वैज्ञानिकों और किसान संगठनों का मानना है कि यदि भारत में इसे अनुमति मिल गई, तो यह भारत की कृषि विविधता को कमजोर कर सकता है और किसानों को कॉर्पोरेट-नियंत्रित बाजार का गुलाम बना सकता है। इस कारण भारत के सामने एक बड़ी चुनौती यह है कि कैसे देश की प्रगति को स्थिरता (sustainability) के साथ संतुलित किया जाए। जीएम मक्का के पक्ष में तर्क दिया जाता है कि यह उपज बढ़ा सकता है, लागत घटा सकता है और आपूर्ति और मांग के अंतर को अच्छे से पाट सकता है। लेकिन इसके संभावित खतरों पर भी गंभीर चर्चा होनी चाहिए। भारत में 50,000 से अधिक स्वदेशी मक्का की किस्में हैं, जो स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलित हैं। जीएम मक्का के क्रॉस परागण के माध्यम से अन्य फसलों में आनुवंशिक प्रदूषण हो सकता है, जिससे जैव विविधता प्रभावित हो सकती है और खाद्य सुरक्षा को खतरा हो सकता है। यह भारत की टिकाऊ कृषि और शून्य उत्सर्जन (Zero Emission) के लक्ष्यों के भी खिलाफ है। जीएम मक्का स्वास्थ्य के लिए कितना सुरक्षित है, इस पर भी विवाद जारी है, क्योंकि कई अध्ययन इसके दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों पर सवाल उठाते हैं। साथ ही, जीएम बीज बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा पेटेंट किए जाते हैं, जिससे किसानों को एक निर्भरता के चक्र में फंसा दिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप छोटे किसानों का हाशियाकरण हो सकता है, जो आत्मनिर्भर भारत और किसानों के हित को प्राथमिकता देने के सिद्धांत के प्रतिकूल है।
इन चुनौतियों के बीच भारत में घरेलू समाधानों की तत्काल आवश्यकता है। यदि सही नीतियों का समर्थन मिले, तो भारत की मक्का उत्पादक क्षमता घरेलू मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। गैर-जीएम मक्का को बढ़ावा देकर भी भारत अपनी खाद्य आपूर्ति श्रृंखला को सुरक्षित और औद्योगिक मांग को पूरा कर सकता है। भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान (IIMR) उच्च-स्टार्च मक्का हाइब्रिड विकसित कर रहा है, जिससे एथेनॉल की रिकवरी दर को बढ़ाया जा सकता है। इन किस्मों में 68-70% स्टार्च होता है, जिससे एथेनॉल उत्पादन 38% से बढ़कर 40-42% हो सकता है। यह किसानों के लिए एक लाभदायक विकल्प बन सकता है। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और किसानों को सीधे बाजार से जोड़ने जैसी पहलें मक्का किसानों को उचित मूल्य दिला सकती हैं और एथेनॉल उत्पादकों के लिए आपूर्ति श्रृंखला को स्थिर कर सकती हैं। गैर-जीएम मक्का वैश्विक उपभोक्ता प्राथमिकताओं के अनुरूप है, खासतौर पर यूरोपीय देशों में, जिससे भारतीय किसानों के लिए निर्यात के बेहतर अवसर खुल सकते हैं। गैर-जीएम मक्का की खेती से रासायनिक इनपुट्स पर निर्भरता कम होती है, जिससे मिट्टी की सेहत और जैव विविधता को बढ़ावा मिलता है। यह भारत के सतत विकास लक्ष्यों और वैश्विक जलवायु प्रतिबद्धताओं के भी अनुरूप है।
इन चुनौतियों का समाधान गैर-जीएम मक्का की खेती को बढ़ावा देने में निहित है। इसे प्रोत्साहित करने के लिए नीति निर्माताओं को कुछ कदम उठाने होंगे। किसानों को गैर-जीएम मक्का किस्मों को अपनाने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन और समर्थन प्रदान करना होगा, ताकि घरेलू उद्योगों के लिए स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित हो सके। एथेनॉल उत्पादन के लिए उपयुक्त उच्च स्टार्च वाले गैर-जीएम मक्का संकरों के विकास के लिए अनुसंधान संस्थानों को संसाधन आवंटित करने होंगे। मक्का किसानों और एथेनॉल निर्माताओं के बीच मजबूत बाजार संबंध स्थापित करने होंगे, ताकि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को सुगम बनाया जा सके और किसानों को बेहतर मूल्य मिल सके। आज सतत कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, जो मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखे, पानी की बचत करें और रासायनिक इनपुट्स पर निर्भरता कम करें। उपभोक्ताओं और हितधारकों को गैर-जीएम मक्का के लाभों के बारे में शिक्षित करने से स्थायी और स्थानीय रूप से उत्पादित फसलों की मांग बढ़ेगी। गैर-जीएम मक्का को प्राथमिकता देकर, भारत अपनी ऊर्जा महत्वाकांक्षाओं को प्राप्त कर सकता है, साथ ही किसानों की आजीविका की रक्षा कर सकता है, जैव विविधता को बचा सकता है और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है। मक्का को सिर्फ एथेनॉल उत्पादन के स्रोत के रूप में नहीं, बल्कि भारत की कृषि लचीलापन और स्थिरता के प्रतीक के रूप में अपनाएं। अब कार्रवाई करने का समय है। आइए, भारत के कृषि भविष्य को सुरक्षित करने के लिए जीएम मक्का को ना कहें और एक टिकाऊ, समृद्ध और आत्मनिर्भर भारत के सपने को साकार करें ।
डॉ. ममतामयी प्रियदर्शिनी, पर्यावरणविद, समाजसेवी, और ट्रस्टी, प्रशुभगिरी ट्रस्ट