बदायूं। दहेज एक अभिशाप दस लाख या पांच लाख का खाना, घड़ी पहनाई, अंगूठी पहनाई, मंडे का खाना फिर सब ससुरालियों को कपड़े देना बारात को खिलाना फिर बारात को जाते हुए भी साथ में खाना भेजना। बेटी हो गई कोई सजा हो गई। और यह सब अब शुरू होता है जब से बातचीत यानि रिश्ता लगता है। फिर कभी ननद आ रही हैं, कभी जेठानी आ रही हैं, कभी चाची सास आ रही हैं, मुमानी सास आ रही हैं आदि टोलियां बना-बनाकर आते हैं और बेटी की मां चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट के लिए सबको आला से आला खाना पेश करती है। सबकी अच्छी तरह से वेलकम करती है फिर जाते टाइम सब लोगों को पांच-पांच सौ भी दिए जाते हैं। सिर्फ मंगनी हो रही है ब्याह ठहर रहा है फिर आदमी तय हो रहे हैं पांच सौ लाएं या आठ सौ।
बाप का एक-एक बाल कर्ज में डूब जाता है और बाप जब घर जाता है शाम को बेटी उसके सर दबाने बैठ जाती है कि मेरे बाप का बाल-बाल मेरी वजह से कर्ज में डूबा हुआ है। अल्लाह के वास्ते इन गंदे रस्मों-रिवाजों को खत्म कर दो, ताकि हर बाप कर्ज में डूना न हो और अपनी बेटी को इज्जत से विदा कर सके। बदलाव एक कोशिश।
दहेज लेने वाले और देने वालों को बिल्कुल शर्म नहीं आती। इन दहेज लोभियों का समाज से बहिष्कार करना चाहिए। दहेज लेना समाज में एक कलंक है अब भट्टी राजपूत महासंघ ने कसम खाई है कि चाहे कितनी बड़ी कुर्बानी देनी पड़े मगर अब इस दहेज के कलंक को खत्म करके ही रहेंगे। हिंदुस्तान की हर दरगाह के सज्जादानशीनों से बात करेंगे। मस्जिद के इमामों से भी बात करेंगे। मठों के धर्माचारियों से भी मिलेंगे। उप्र के हर जिले में जाकर लोगों से मिलेंगे और उन्हें समझायेंगे कि निकाह पढ़ाने वाले इमाम पर भी दबाव डलवाएंगे कि बिना दहेज के निकाह पढ़ाया जाए। दहेज क्या है उसके मां-बाप से पूछना नींद भी चली गई और लडक़ी भी चली गई।
वरिष्ठ पत्रकार हामिद अली खां राजपूत की कलम से