लंबे समय से हमारा देश खाद्य सुरक्षा की चिंता और कृषि स्थिरता से जूझ रहा है, जिससे निपटने में मक्के की एक अहम भूमिका मानी जाती रही है। आज भारत में आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) मक्के के आयात बनाम गैर-जीएम मक्के के उत्पादन से भारत की मक्के के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को लेकर बहस बदस्तूर जारी है। पर बीटी कॉटन के आयात में सरकार की हड़बड़ाहट जैसे कई पुराने कड़वे अनुभवों से यह बात बार-बार उभर कर आ रही है कि कुछ गिनी-चुनी विदेशी कंपनियों के हाथ में भारत के किसानों की स्वायत्तता देकर आयातित जीएम मक्के को जादू की छड़ी मानने के बजाय भारत सरकार को गैर-जीएम मक्के की खेती पर ध्यान केंद्रित करना ही भारतीय किसानों और उपभोक्ताओं के लिए ज्यादा श्रेयस्कर है।
अगर देखा जाए तो भारत में मक्के की खेती के लिए ना तो किसानों की कमी है, ना अच्छी मिट्टी, अनुकूल जलवायु और ना ही उन्नत बीजों की। बस जरूरत है तो सरकार की तरफ से किसानों को उचित प्रोत्साहन देने की, अपने देश के मक्के के किसानों की क्षमता पर निरंतर भरोसा करने की, मक्के के क्षेत्र में रिसर्च, सप्लाई और मार्केटिंग कर रहे निजी कंपनियों को बढ़ावा देने की, और सरकार के इस विश्वास की कि बिना जीएम मक्के का आयात किए भी अपना देश, मक्के के क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक देश बन सकता है। आज भारत मक्के के उत्पादन में वैश्विक स्तर पर अग्रणी देशों में गिना जाता है।
भारत में मक्के की खेती की स्थिति
कुछ राज्यों जैसे कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, तेलंगाना, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश में मक्का सबसे ज्यादा उपजाया जाता है। अब हाल फिलहाल में खबर ये आई है कि असम के किसान भी मक्के की खेती को तेजी से अपना रहे हैं। भारत में गैर-जीएम मक्का की खेती करने वाले किसानों की सफलता की कहानियां अन्य छोटे, मंझोले किसानों को भी इसकी उपज के लिए उत्साहित कर रही हैं। उन्हें ये समझ आ रहा है कि आज विश्व में मक्के की बढ़ती मांग के कारण, चावल, गेहूं से इतर मक्के की खेती में उनके आर्थिक विकास की कुंजी छुपी हुई है।
इन्हीं मक्का किसानों में से एक श्री संदीप शंकर शिरसाठ, जो महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले से आते हैं, इसका एक जीता-जागता उदाहरण हैं कि कैसे आत्मिक बल, उन्नत बीजों और सरकार की योजनाओं का लाभ उठाकर मक्के की खेती करके अपने आर्थिक स्तर को ऊँचा किया जा सकता है। उन्होंने मक्के की खेती सन् 2018 में मात्र आधा एकड़ भूमि पर शुरू की थी। पर आज उन्होंने अपने खेत को 1.5 एकड़ तक बढ़ा दिया है। उनके द्वारा अपनाई गई सिंचाई पद्धतियाँ भी काबिले तारीफ हैं, जिसमें उन्होंने वर्षा जल संचयन और तालाब का उपयोग किया है।
आज खेती में उनकी कुल लागत लगभग 20,000-25,000 रुपये प्रति एकड़ है, जबकि उसकी बिक्री 80,000-90,000 रुपये के बीच हो जाती है। कोई अकस्मात् प्राकृतिक आपदा या बाहरी व्यवधान न होने पर उन्हें लगभग 55,000-65,000 रुपये प्रति एकड़ की शुद्ध आय हो जाती है। पिछले कुछ सालों से उच्च गुणवत्ता वाले मक्के के बीजों का उपयोग करने से यह उपज, 25-35 क्विंटल से बढ़ाकर 45 क्विंटल प्रति एकड़ तक हो गयी है। श्री शिरसाठ को पोल्ट्री फीड कंपनियों और स्थानीय व्यापारियों से अपने उत्पाद का उचित मूल्य मिल जाता है, जो गैर-जीएम मक्के के लिए एक मजबूत बाजार का संकेत है। उनके इस प्रेरणादायी सफर के बावजूद भी उनकी राह में कई चुनौतियाँ हैं, मसलन, समय पर उन्नत बीजों का उपलब्ध नहीं हो पाना, सरकार से प्रोत्साहन की कमी इत्यादि जो उनके उत्पादन को प्रभावित कर सकती हैं।
गैर-जीएम मक्के के फायदे
हमारे देश में ऐसे सफल उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। यहाँ उपलब्ध गैर-जीएम मक्के के बीजों में भारत के किसानों की आर्थिक निर्भरता का रास्ता छुपा हुआ है क्योंकि इनके उत्पादन में आमतौर पर टिकाऊ खेती के तरीकों का उपयोग किया जाता है, जिससे रसायनों पर निर्भरता कम होती है और जैव विविधता को भी बढ़ावा मिलता है। गैर-जीएम मक्के की खेती पौधों के स्थानीय किस्मों को बनाए रखती है। इनमें से कुछ बीज अनुकूल परिस्थितियों में उन ट्रांसजेनिक बीजों से ज्यादा या समान उपज दे सकते हैं।
देश के कई प्लेटफार्म पर भले ही इस विषय पर अभी भी बहस जारी है, कि भारत में मक्के की बढ़ती मांग और सप्लाई की कमी की खाई को पाटने और इसकी उपज को बढ़ाने के लिए जीएम मक्के के बीजों का आयात करना ही एकमात्र रास्ता है, लेकिन कुछ स्वास्थ्य के पेशे के लोग, उपभोक्ता और पर्यावरणविद् इसके बारे में खासी चिंता व्यक्त कर रहे हैं। वो आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों से संभावित दीर्घकालिक स्वास्थ्य परिणामों को लेकर सशंकित हैं क्योंकि उस पर अभी पर्याप्त रिसर्च नहीं हैं।
आज भी गैर-जीएम खाद्य पदार्थ और उत्पाद दुनियाभर में, यथा यूरोप और एशिया के कुछ हिस्सों में तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। इन आकर्षक गैर-जीएम निर्यात बाजारों में विपणन के लिए, भारतीय किसानों को गैर-जीएम मक्का पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।
भारत जैसे देश में जहाँ किसानों का कल्याण, सरकार की सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिकताओं में से एक है, वहाँ टिकाऊ खेती के तरीकों और एकीकृत कीट प्रबंधन को अपनाना प्राथमिकता होनी चाहिए। कुछ मीडिया एजेंसियों की रिपोर्ट के अनुसार, जीएम फसलों से होने वाले स्थायी पारिस्थितिक प्रभावों के डर से अधिकांशतः किसान अभी भी गैर-जीएम किस्मों की ओर लौट रहे हैं। हमारे देश में विशाल कृषिभूमि है, जहाँ गैर-जीएम मक्का किस्मों को बढ़ावा देकर मक्का उत्पादन पर आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की क्षमता है।
फ्रांस या इटली जैसे कुछ देशों ने जीएम पर निर्भर हुए बिना भी मक्के की उपज में कोई कमी नहीं है। ऐसे देश खेती के ऐसे तरीकों को प्राथमिकता देते हैं जो मिट्टी के स्वास्थ्य और जैव विविधता को संरक्षित करते हैं, इसलिए आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों से संबंधित जोखिमों से बचते हैं। श्री संदीप जैसे मक्के के कई किसानों ने यह दिखाया है कि गैर-जीएम मक्के की उपज अत्यंत लाभदायक हो सकती है। यह लाभप्रदता, कम इनपुट लागत और गैर-जीएम किस्मों के बीजों को बढ़ावा देने के लिए अधिक नीतिगत हस्तक्षेप के साथ मिलकर गैर-जीएम मक्के को भारतीय किसानों के लिए आर्थिक रूप से व्यवहार्य विकल्प बनाती है।
कृषि विकास और खाद्य सुरक्षा के जटिल मार्ग पर भारत के आगे बढ़ने में, गैर-जीएम मक्का की खेती को मुख्यधारा में लाने से यह देश दुनियाभर में बेहतर कृषि नेतृत्व की ओर अग्रसर हो सकता है और साथ ही साथ अपने देश में और बाहर गैर-जीएम खाद्य वस्तुओं की बढ़ती मांग को पूरा कर सकता है।
डॉ. ममतामयी प्रियदर्शिनी
पर्यावरणविद एवं सामाजिक कार्यकर्ता